राष्ट्रपति बापू की प्रिय धुन आखिरी बार अबाइड विद मी बजेगी

दिल्ली :- गनीमत मानिए कि गणतंपत्र दिवस समारोह के अंतिम दिन होने वाले ‘बीटिंग द ‍रिट्रीट’ आयोजन में नियमित रूप से बजने वाली राष्ट्रपिता बापू की प्रिय धुन ‘अबाइड विद मी’ खारिज होते-होते बच गई। दस दिन पहले खबर चली थी कि इस साल इस धुन को निरस्त कर दिया गया है और इसकी रिहर्सल भी रोक दी गई है। उसकी जगह ‘वंदे मातरम्’ धुन ही बजाई जाएगी। वजह बताई गई कि चूंकि ‘बीटिंग द रिट्रीट’ में शामिल सभी धुनों का ‘भारतीयकरण’ किया जा रहा है, इसलिए ‘अबाइड विद मी’ इस बार नहीं बजेगी। इस पर बवाल भी मचा, जो सीएए-एनआरसी के हल्ले में सुना नहीं गया। लेकिन अब गणतंत्र दिवस परेड के दो दिन पूर्व रक्षा मंत्रालय के सू‍त्रों के हवाले से खबर आई है कि ‘ –‘अबाइड विद मी’ पहले की तरह बजेगी। साथ में वंदे मातरम् भी बजाई जाएगी। ‘बीटिंग द रिट्रीट’ समारोह में बजने वाली ‘अबाइड विद मी’ अकेली विदेशी धुन होगी। इस पूरी जानकारी का प्रतीकात्मक अर्थ इतना ही है कि गांधी अभी सभी दूर से खारिज नहीं हुए हैं या ऐसा न कर पाना मजबूरी है।
पहले ‘बीटिंग द रिट्रीट’ की बात। इसका हिंदी में अर्थ ‘सेनाअों की शिविरों में वापसी’ है और इस मौके पर खास धुन बजाई जाती है। इसकी शुरूआत सबसे पहले 17 वीं सदी में इंग्लैंड में हुई। आरंभ में इसका मकसद केवल सूर्यास्त की घोषणा करना था। लेकिन इंग्लैंड के राजा जेम्स द्वितीय के समय 18 जून 1690 को उसकी फौजों की किले में वापसी के समय ड्रम्स बजाए गए। आजाद भारत में इसी ब्रिटिश परंपरा को अपने ढंग से जारी रखा गया। 26 जनवरी से शुरू होने वाले गणतंत्र दिवस समारोह के अंतिम और तीसरे दिन दिल्ली के विजय चौक पर ‘बीटिंग द रिट्रीट’ का आयोजन होता है। इसमें तीनो सेनाअों के बैंड अपनी आकर्षक धुनें प्रस्तुत करते हैं। आजकल इसमें केन्द्रीय सुरक्षा बलों के बैंड भी हिस्सेदारी करते हैं। यह समारोह अत्यंत दर्शनीय और सैन्य बैंड के कर्णमधुर वादन से भरा होता है। भारत में इस तरह का पहला आयोजन 1950 में हुआ, जब आजादी के बाद पहली बार ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ और उनके पति प्रिंस फिलिप भारत आए। कहते हैं कि सेना के एक अधिकारी मेजर जी.ए.राॅबर्ट्स ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सलाह दी ‍िक इन अतिथियों के आगमन पर ‍कुछ विशेष किया जाए। इसका परिणाम ‘बीटिंग द रिट्रीट’ के रूप में सामने आया। खास बात यह है कि गांधीजी की पसंदीदा धुन ‘अबाइड विद मी’ शुरू से बीटिंग द रिट्रीट’ में बजती आई है। इस गीत को स्काॅटिश कवि ‍कवि हेनरी फ्रासिंस लाइट ने 1847 में लिखा था। हेनरी बचपन में ही अनाथ हो गए थे। उन्हें एक अन्य आयरिश मंत्री डाॅ. राॅबर्ट बोरो ने पाल पोस कर बड़ा किया। हेनरी बीमार रहते थे और उन्हें टीबी हो गया था। हेनरी ने जीने की आस लगभग छोड़ दी। बाद में उन्होंने एक विदाई समारोह में दिए भाषण में कविता भी पढ़ी- ‘अबाइड विद मी’। अर्थात ‘हे ईश्वर तू हमेशा मेरे साथ रहना।‘ इसके कुछ दिनो बाद ही हेनरी लाइट का निधन हो गया। लेकिन उनकी यह मार्मिक प्रार्थना एक लोकप्रिय ईसाई गीत के रूप में जिंदा रही। इसमें प्रभु यीशु से प्रार्थना है, लेकिन यह गुहार किसी भी ईश्वर से हो सकती है। चूं‍कि गांधीजी को यह गीत बेहद पसंद था, इसलिए उसे ‘बीटिंग द रिट्रीट’ समारोह में शामिल किया गया। यह समारोह की अंतिम धुन के रूप में बजती आई है।
अब सवाल यह कि इसी साल इस धुन को हटाने की बात क्यों आई? इसके पीछे क्या कारण था? इस धुन का गांधीजी को प्रिय होना था या फिर इसका ईसाई प्रार्थना के रूप में होना था? अथवा इसे केवल विदेशी धुन मानकर हटाना था? इस बारे में अधिकृत जानकारी किसी ने नहीं दी, लेकिन सरकारी सूत्रों का कहना था कि यह बदलाव समारोह में भारतीय धुनों को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है। हर साल कुछ नई धुनें जोड़ीं और हटाई जाती हैं। ‘अबाइड’ का हटना शायद इसी ‘बदलाव’ का नतीजा था। ‘वंदे मातरम्’ बजे, इस पर किसी को आपत्ति न है और न ही होनी चाहिए।
बेशक, भारतीय सेना का भी पूरी तरह ‘भारतीयकरण’ किया जा रहा है तो समारोही धुनें भी विदेशी क्यों हो, इस पर दो राय नहीं हो सकती। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? क्योंकि आज की भारतीय सेना मूल रूप से ब्रिटिश परंपरा की ही वाहक है। उसका संगठन, स्वरूप, प्रशिक्षण और अनुशासन उसी का परिणाम है। इस तरह का सैन्य संगीत भी अंग्रेजों की ही देन है। लिहाजा भारतीय सेना का सौ फीसदी भारतीयकरण असंभव है और ऐसा करने का दुराग्रह भी जबरन बला को न्यौता देना है। यही पर्याप्त है कि जो हो, उसका भाव भारतीय हो, भारतीयता पर अभिमान से भरा हो।
‘बीटिंग द रिट्रीट’ समारोह में बजने वाली धुनों का चयन सेना के समारोही एवं कल्याण निदेशालय द्वारा किया जाता है। अब सैन्य संगीत में भारतीय वाद्यों को भी शामिल किया जा रहा है। हालांकि सैन्य संगीत के इस भारतीयकरण से बहुत से लोग सहमत नहीं हैं, क्योंकि इनका मानना है कि यह एक सैन्य समारोह है कोई शास्त्रीय संगीत समारोह नहीं। हालांकि यह बहस का विषय है कि सैन्य संगीत में क्या और किस हद तक शामिल ‍िकया जाना चाहिए। लेकिन गांधीजी की पसंद अगर एक धुन समारोह में बजती रहे तो दिक्कत क्या है? वैसे भी गांधी को बाकी जगहों से खारिज करने का सुनियोजित अभियान चल ही रहा है। अब तो दिल्ली के गांधी स्मृति संग्रहालय से बापू की हत्या की तस्वीरें और वो पिस्तौल जिससे उनकी हत्या हुई, हटा दी गई हैं। इसके पीछे क्या सोच कहना मुश्किल है। ये तस्वीरें फोटोग्राफर हेनरी कािर्तयर ब्रेसन ने खींची थीं। शायद यह माना गया हो कि तस्वीरें हटाने से इतिहास और ऐतिहासिक तथ्य बदल जाएंगे। हालांकि संग्रहालय के निदेशक दीपंकर श्रीज्ञान का कहना है कि लोगों की डिमांड पर पुरानी तस्वीरों को हटाया गया है। इसकी जगह डिजीटल कार्यक्रम दिखाया जा रहा है। हालांकि ऐसी ‘डिमांड’ करने वाले कौन हैं, यह खुलासा उन्होंने नहीं किया।
मूल प्रश्न यह है कि हम बापू को राष्ट्रपिता के रूप में, उनके विचारों और आदर्श के रूप में जिंदा रखना चाहते भी हैं या नहीं? या सब केवल दिखावा है? अगर गांधी हमे सचमुच मान्य हैं तो प्रज्ञा ठाकुर के विचारों को भी खाद पानी देना क्यों जरूरी है? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का गांधी प्रेम बापू के गुजराती होने के कारण ज्यादा है या वे सचमुच उनके विचारों के मुरीद हैं, यह आज तक साफ नहीं हो पाया है। बहरहाल राहत की बात इतनी है कि बापू की धुन उस गणतंत्र दिवस समारोह में बजेगी, जो हमे अपने र्सावभौम होने की ताकत देता है, उस ‘बीटिंग द रिट्रीट’ में बजेगी, जिसकी मार्चिंग स्वर लहरियां हमे अपने देश की सुरक्षा और सुरक्षा बलों की वीरता के प्रति आश्वस्त करती हैं। हो सकता है कि ‘अबाइड’ का ‘बीटिंग द‍ रिट्रीट’ में बजने का यह आखिरी मौका हो। और यह भी इस साल बापू के जन्म की डेढ़ सौ वीं जयंती वर्ष के आयोजनों के साथ उनको यह अंतिम सैन्य संगीत श्रद्धांजलि हो..। क्या आपको नहीं लगता ?

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